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उ॒पा॒वीर॒स्युप॑ दे॒वान् दैवी॒र्विशः॒ प्रागु॑रु॒शिजो॒ वह्नि॑तमान्। देव॑ त्वष्ट॒र्वसु॑ रम ह॒व्या ते॑ स्वदन्ताम् ॥७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒पा॒वीरित्यु॑पऽअ॒वीः। अ॒सि॒। उप॑। दे॒वान्। दैवीः॑। विशः॑। प्र। अ॒गुः॒। उ॒शिजः॑। वह्नि॑तमा॒निति॒ वह्नि॑ऽतमान्। देव॑। त्व॒ष्टः॒। वसु॑। र॒म॒। ह॒व्या। ते॒। स्व॒द॒न्ता॒म् ॥७॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:7


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह प्रजाजनों के प्रति क्या करे और वे प्रजाजन उस राजा के प्रति क्या करें, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) दिव्यगुणसम्पन्न ! (त्वष्टः) सब दुःख के छेदन करनेवाले सभाध्यक्ष ! जिससे तू (उपावीः) शरणागत पालक सदृश (असि) है, इसी से (दैवीः) विद्वानों से सम्बन्ध रखनेवाली दिव्यगुण सम्पन्न (विशः) प्रजा जैसे (उशिजः) श्रेष्ठ गुण शोभित कामना के योग्य (वह्नितमान्) अतिशय धर्म मार्ग में चलने और चलानेवाले (देवान्) विद्वानों को (उपप्रागुः) प्राप्त हुए वैसे तुझे भी प्राप्त होते हैं, जैसे तेरे आश्रय से प्रजा धनाढ्य होके सुखी हो, वैसे तू भी प्राप्त हुए प्रजाजनों से सत्कृत होकर (रम) हर्षित हो, जैसे तू प्रजा के पदार्थों को भोगता है, वैसे प्रजा भी तेरे (हव्या) भोगने योग्य अमूल्य (वसु) धनादि पदार्थों को (स्वदन्ताम्) भोगें ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे गुण के ग्रहण करनेवाले उत्तम गुणवान् विद्वान् का सेवन करते हैं, वैसे न्याय करने में चतुर राजा का सेवन प्रजाजन करते हैं, इसी से परस्पर की प्रीति से सब की उन्नति होती है ॥७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स तान् प्रति किं कुर्यात् ते च तं प्रति किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उपावीः) उपागतपालक इव (असि) (देवान्) विदुषः (दैवीः) देवसम्बन्धिनीर्दिव्याः (विशः) प्रजाः (प्र) प्रकृष्टार्थे (अगुः) अगमन् (उशिजः) कमनीयान् (वह्नितमान्) अतिशयिता वह्नयो वोढारस्तान् (देव) दिव्यगुणसम्पन्न ! (त्वष्टः) सर्वदुःखच्छित् (वसु) वसूनि धनानि। अत्र सुपां सुलुक्। (अष्टा०७.१.३९) इति शसो लुक्। (रम) रमस्व, अत्रात्मनेपदे व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (हव्या) होतुमत्तुमर्हाणि (ते) तव (स्वदन्ताम्) भुञ्जताम् ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.७.३.९-१२) व्याख्यातः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव त्वष्टः सभापते ! यतस्त्वमुपावीरिवासि तस्माद् दैवीर्विशो यथा उशिजो वह्नितमान् देवान् उपप्रागुस्तथा त्वां प्राप्नुवन्ति, यथैतास्त्वदाश्रयेणाढ्या भूत्वा रमन्ते, तथा त्वमपि तासु रम रमस्व, भवानेतेषां पदार्थान् भुङ्क्ते तथैते ते हव्या होतुमर्हाणि हव्यानि वसु वसूनि स्वदन्ताम् ॥७॥
भावार्थभाषाः - यथा गुणग्राहिण उत्तमगुणं सेवन्ते, न्यायविचक्षणं राजानं प्रजाश्च सेवन्ते, येन मिथः प्रीत्या परस्परस्योन्नतिर्भवतीति ॥७॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा गुणी लोक गुणी विद्वानांचा स्वीकार करतात व प्रजा चतुर व न्यायी राजाचा स्वीकार करते तेव्हाच परस्परप्रेमाने सर्वांची उन्नती होते.